Radha Soami Satsang Beas
Siddh Gosht - Conversations with the Siddhas By Guru Nanak Dev Ji
Posts  1 - 7  of  7
Waheguru

During Guru Nanak Dev Ji's third missionary travels he traveled north into the Himalayas. Guru Ji visited Jawalamukhi, Kangra, Riwalsar, Kulu, and Tibet.

On Mount Sumayr Guru Sahib Ji met a large number of ascetics who were the hermits known as Siddhs. They had cut themselves off from the rest of the world and had grown very old and wise as they meditated and contemplated. Their leader was Gorakh Naath and they possessed great occult powers and performed many miracles. Although very young compared to the Siddhs they non the less recognised in Guru Ji the divine light and received him with great courtesy.

The following is a composition called the Siddh Gosht or 'conversations with the Siddhas' that Guru Nanak Dev Ji wrote about his encounter with the Siddhs. It is a lengthy but masterful piece as Guru Sahib Ji answers the questions put to him by the Siddhs.


Kind Regards
Kukkar Raam Ko !
Save
Cancel
Reply
replied to:  Waheguru
Waheguru
Replied to:  During Guru Nanak Dev Ji's third missionary travels he traveled...
गुरु साहिब द्वारा प्रकट किया गए शब्द के सिद्धांत ने सिद्धों के सब संशय दूर कर दिए और उनके मन शांत हो गए | सिद्धों ने गुरु साहिब के प्रति अति कोमल शब्दों द्वारा प्रेम और सम्मान के भाव प्रकट किये | उन्होंने गुरु की ऊँची आध्यात्मिक ज्ञान और अनुभूति की प्रशंसा की | उन्होंने गुरु नानक साहिब को मानवता के उद्धार के लिए कलियुग में पिता परमेश्वर द्वारा प्रज्ज्वलित की गई निर्मल ज्ञान की ज्योति कहकर सराहा है |

योगी कहतें हैं: स्वामी जी ! हमारी यह विनती है कि हम आपका सच्चा उपदेश सुनना चाहतें है | हमारी बात का बुरा मत मानियेगा | हमें विस्तारपूर्वक समझाओ कि ('आपे मेल मिलाये' वाले ) गुरु का द्वार कैसे प्राप्त हो ? गुरु साहिब उत्तर देतें हैं कि ज़रूरत इस बात कि है कि चंचल मन अपने घर में टिक कर बैठ जाए और उसे अन्दर से नाम का आधार मिल जाए | (यह अवस्था गुरु की सहायता से प्राप्त होती है और ) वह परवरदिगार ही स्वयं सतगुरु से मिलाता है | जब सतगुरु से मिलाप हो जाता है तो ह्रदय में प्रभु का प्रेम उत्पन्न हो जाता है

योगियों ने अपनी बातें बड़े ही आत्म-विश्वास और द्रढ़ता से आरम्भ की थी | गुरु साहिब के साथ थोड़ी बातचीत के बाद उनका लहज़ा बदल गया और वो बड़े परम और विनम्रता के साथ उन्हें 'स्वामी' कहकर संबोधन करने लगे और अपने प्रश्न को 'अरदास' का नाम देने लगे | योगी पूछते हैं की अपने यह तो कह दिया की प्रभु के मिलाप केवल वह गुरु करवा सकता है, जो स्वयं प्रभु से मिलाप कर चुका हो और जीवात्मा को भी प्रभु के साथ मिलाने की सामर्थता रखता हो | यह भी समझाओ कि ऐसे गुरु से कैसे मिलाप हो ?
Save
Cancel
Reply
replied to:  Waheguru
Waheguru
Replied to:  गुरु साहिब द्वारा प्रकट किया गए शब्द के सिद्धांत ने सिद्धों...
गुरु साहिब उत्तर देते हैं :

१. प्रभुरुपी सत्य के साथ मिलाप करने के लिए सतगुरु का साथ भी प्रभु के दया-मेहर से होता है | जीव में इतनी ताकत नहीं है कि वो अपने-आप उस कामिल मुशिद से विसाल का सके | यदि जीव ऐसे पूर्ण पुरुष से अपनी बल-बूढी से मिलाप कर सकता होता, तो प्रभु के साथ भी मिलाप कर लेता | गुरु साहिब ये समझाना कह रहे हैं कि पूर्ण सतगुरु का मिलाप जीव के अपने यत्न या बुद्धि-चतुराई से नहीं बल्कि प्रभु की दया पर निर्भर है |


२. आप फरमाते है कि सतगुरु द्वारा जीव के अन्दर प्रभु का प्रेम उत्पन्न होता है | सतगुरु द्वारा बख्शे गए नाम द्वारा, मन बस में आ जाता है और प्रभु रूपी सत्य से मिलाप हो जाता है |

गुरु साहिब द्वारा समझाए गए साधन और मार्ग के बारे में सुनकर लोहारीपा नामक योगी अपने मन में संशय प्रकट करता हुआ कहता है :

लोहारीपा योगी अपने-आपको गोरखनाथ का शिष्य बताते हुए 'जोग जुगत बिध साईं' का संकेत देता है | वह कहता है : (हमें तो हमारे गुरु गोरखनाथ ने उपदेश किया है कि योग सिद्धि के लिए ) साधक को बस्ती ही नहीं, बल्कि बस्तियों के भी मार्ग से दूर जंगलों में वृक्षों के नीचे निर्वाह करना चाहिए | उसे कंदमूल फल खाकर गुज़ारा करना चाहिए | तीर्थ-स्थानों पर जाकर स्नान करना चाहिए, इससे सुख कि प्राप्ति होती है | यदि तीर्थों पर स्नान द्वारा शुद्ध हो जाएँ तो फिर मैल नहीं लगती है | गोरखनाथ का शिष्य लोहारीपा योगी कहता है कि यही योग कि वास्तविक युक्ति है |
Save
Cancel
Reply
replied to:  Waheguru
Waheguru
Replied to:  गुरु साहिब उत्तर देते हैं : १. प्रभुरुपी सत्य...
गुरु साहिब उत्तर देते हैं : हे योगी ! ज़रूरत इस बात कि है कि साधक इस मार्गों पर चलता हुआ अज्ञानता या गफलत की नींद में न सो जाए | उसे चाहिए कि मन को पराये घर न जाने दे | नाम के बिना मन ठहरता नहीं और न ही आशा-तृष्णा शांत होती है | गुरु साहिब समझातें हैं कि सतगुरु ने मुझे (वह वास्तविक) दूकान, बाज़ार, और घर दिखा दिया है जिसमें सहज अवस्था में पहुँचकर सत्य का व्यापार किया जा सकता है | सच्चा साधक कम सोता है, कम खाता है और सदैव (प्रभु या नामरूपी ) परमतत्त्व के विचार में मग्न रहता है |

गुरु साहिब समझातें हैं: आबादी या उसकी तरफ जाने बाले मार्ग का त्याग करने की ज़रूरत नहीं | आवश्यकता इस बात की है कि जहाँ भी रहें, अज्ञानता की नींद से बचकर रहें | संसार में रहें, परन्तु आम संसारियों की तरह नहीं बल्कि प्रभु के भक्तों की तरह | संसार में रहें परन्तु प्रभु प्राप्ति के आदर्श की और से अचेत न हो जाए |

गुरु साहिब समझा रहे हैं कि योग का सम्बन्ध मन की साधना से है, शारीर से नहीं | आत्मा और परमात्मा के मिलन में रूकावट मन की है | मन चंचल है | इसके अन्दर की तृष्णाओं की अग्नि प्रचंड है | जब तक मन शांत नहीं बैठता और तृष्णाओं की अग्नि शांत नहीं होती, आत्मा का परमात्मा से मिलाप नहीं हो सकता | मन को केवल वह ताकत स्थिर कर सकती है जो मन से अधिक शक्तिशाली हो और जिसके अन्दर इन्द्रयों के भोगों और विषय-विकारों से ऊँची और और विशुद्ध लज्जत हो | वह शक्ति प्रभु का नाम है | गुरु साहिब उपदेश देते हैं की जब तक मन प्रभु के नाम से नहीं जुड़ता, तब तक यह निश्चल नहीं हो सकता और न ही इसकी तृष्णा शांत हो सकती है |
Save
Cancel
Reply
replied to:  Waheguru
Waheguru
Replied to:  गुरु साहिब उत्तर देते हैं : हे योगी ! ज़रूरत इस...
मन के गुण, कर्म और स्वभाव और उसे वश करने के उपाय पर अदि ग्रन्थ की सम्पूर्ण वाणी में गुरु साहिब द्वारा आसा राग में उच्चारित किया गए शब्द 'मन मैगल साकत दीवाना' का एक विशेष स्थान है | इसके कुछ अंशो पर विचार करतें हैं:

माया का आशिक मन, मस्त हाथी की तरह दुनियारूपी माया के जंगल में भटक रहा है | यह बिना अंकुश के हर तरफ भागता फिर रहा है | जब गुरुमुख की शरण प्राप्त होती है तो इसे अपने वास्तविक घर की समझ आती है अन्यथा नहीं | सतगुरु के शब्द से लिव जोड़े बिना मन कभी शांत नहीं हो सकता है | इसलिए मनमत का त्याग करके मन को प्रभु के निर्मल नाम में लीन कर लेना चाहिए |

गुरु साहिब गुरुमत के बुनियादी सिद्धांत पर प्रकाश डाल रहें हैं कि मालिक से विसाल जिस्म की साधना से नहीं, बल्कि मन की साधना पर आधारित है | जो व्यक्ति अपने पीर की समझाए हुए तरीके से अपनी रूह को बांगे-आसमानी (अनहद नाद) से जोड़ लेता है, वह हर तरह की हविश और वासना से आजाद हो जाता है | बन्दे के मन की हालत अपने घरबार को छोड़ने से, जंगलों में रहने और कंदमूल फल खाने से नहीं. बल्कि रूह को शब्द में ज़ज्ब करने से बदलती है | मकसद शब्द के साथ जुड़ने का है | यह काम घर बैठकर करो या बाहर रहकर, कोई फर्क नहीं पड़ता |
Save
Cancel
Reply
replied to:  Waheguru
Waheguru
Replied to:  मन के गुण, कर्म और स्वभाव और उसे वश करने के...
गुरु साहिब उपदेश देते हैं: साधक को चाहिए कि ध्यान पराये घरों में न भटकने दे | जब तक शागिर्द का मन डांवाडोल है और परिये घरों में भटकता है, वह योग में सिद्धि के स्वप्न भी न देखे | गुरु साहिब आगे कहतें जिस घर में बैठकर प्रभु की भक्ति यानि नाम का अभ्यास का सच्चा व्यापार किया जा सकता है, उसकी सूझ कामिल दरवेश (सतगुरु) की मौज से हासिल होती है | इस सन्दर्भ में 'अपने घर' और 'पराये घर' का अंतर समझना बहुत ज़रूरी है |प्रभु ने शरीर के नौ घर या नौ दरवाजे संसार के कार्य-व्यवहार के लिए स्थापित किये हैं | उस अगम-अलख प्रभु का निवास इनसे ऊपर दसवें घर या दावें दरवाजे में है |

ऐ मुर्ख मन ! तू संसार का लोभ त्याग कर निज घर में टिक कर बैठ जा और ध्यान को अंतर्मुख करके प्रभु के नाम का सुमिरन कर ताकि तुझे मुक्ति प्राप्त हो जाए |

प्रभु ने अपने हुक्म से शरीररूपी गुफा के दस दरवाजे बनवाये हैं | नौ दरवाजे - दो आँखे, दो कान, दो नाक के छिद्र, मुहँ और मल-मूत्र (इन्द्रियों) के दो स्थान - बाहर की तरफ खुलते हैं | दसवाँ घर जिसमें वह अलख-अगम प्रभु निवास कर रहा है, इनसे ऊपर है | और द्वारों के ज़रिये मन और आत्मा ऊपर से नीचे और अन्दर से बाहर आतें हैं तथा संसार मैं फ़ैल जातें हैं | मन और आत्मा की असली बैठक अन्दर आँखों से ऊपर है | नौ द्वारों को पराया घर कहा गया है | आँखों से ऊपर दसवें दरवाजे को मन और आत्मा का वास्तविक घर या निज घर कहा गया है | गुरु साहिब समझाते हैं कि जब तक मन और आत्मा स्थिर नहीं होते, तब तक उनका आतंरिक शब्द या नाम के साथ मिलाप नहीं हो सकता | गुरु अमरदास जी भी यही फरमाते हैं :
Save
Cancel
Reply
replied to:  Waheguru
Waheguru
Replied to:  गुरु साहिब उपदेश देते हैं: साधक को चाहिए कि ध्यान...
साधक को चाहिए कि नौ द्वारों में फैले ध्यान को अन्दर आँखों से ऊपर स्थिर करे | फिर वह पराये घरों की भटकन से मुक्त होकर अन्दर निज घर में pahunch जाएगा | वहाँ पहुँचकर इसे शब्द की कभी बंद न होने वाली सुरीली ध्वनि सुनाई देगी | यही योग की सिद्धि का सच्चा साधन है |
Save
Cancel
Reply
 
x
OK